2 सितंबर राज्य आंदोलन का रहा काला दिन।

मसूरी : उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलन में पहाड़ों की रानी मसूरी की अहम भूमिका को कभी नकारा नहीं जा सकता। मसूरी के लोगों ने राज्य निर्माण के लिए सात सहादतें दी जिसमें एक पुलिस अधिकारी भी था। पुलिस की यातनाएं सही, मुकदमें झेले और न जाने क्या क्या सहा वहीं आर्थिक तंगी का भी सामना करना पड़ा। आज राज्य को बने 18 साल व आंदोलन के दौरान मसूरी गोली कांड को 29 साल बीत गये हैं लेकिन अभी तक यह नहीं लगता कि वास्तव में क्या उत्तराखंड राज्य यहां की जनता के हितों के लिए बना है। क्यों कि इतने वर्षों में केवल सत्ता को बदलते देखा कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा को देखा लेकिन राज्य जिन सपनों को लेकर बना था उसमें एक प्रतिशत भी काम नहीं हो पाया। पलायन की पीड़ा और बढ़ी है तथा कई गांव अब पूरी तरह खाली हो चुके हैं। पहाड़ों पर बुनियादी सुविधायें तक नहीं पहुंचाई गई है।
पहाड़ों की रानी मसूरी का उत्तराखंड राज्य आंदोलन में सबसे अहम भूमिका रही है। भले ही यह छोटा सा शहर था लेकिन इस शहर ने आंदोलन का नेतृत्व किया है। और यही कारण है कि बहुत जल्दी राज्य मिल गया। जिसकी शायद यहां के नेताओं व जनता ने उम्मीद भी नहीं की थी। उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलन में पूरे राज्य में जो स्वतःफूर्त आंदोलन चला उसने पूरे देश को आंदोलन का नया तजुर्बा दिया। गांधी जी के अंहिसा को सर्वोपरि रख कर आंदोलन किया गया। इस आंदोलन को कोई नेता नहीं था। यह भी विश्व में पहली बार हुआ होगा। बिना नेता के आंदोलन चला और अपने लक्ष्य तक पहुंचा व राज्य हासिल किया। आज भले ही विकास की धारा नहंी बह पायी इसका दोष हमारी सरकारों का हैे लेकिन जनता ने राज्य बना कर ही दम लिया। देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उन्होंने राज्य का निर्माण कर यहां की जनता के सपनों को पूरा किया। इस मौके पर उन्हें भी याद किया जाना चाहिए।
उत्तराखंड आंदोलन की यादों को ताजा करने के लिए अगर हम 29 साल पीछे जाएं तो रौंगटे खड़े हो जाते हैं उस समय क्या मंजर था। हमेशा शांत रहने वाली पहाड़ों की रानी मसूरी पूरी तरह आंदोलन में डूबी थी। किसी को अन्य कोई कार्य नहीं सुहा रहा था। मसूरी की आर्थिकी पूरी तरह ठप्प हो चुकी थी। पर्यटकों ने आना बंद कर दिया था।घरों की गृहणियों के साथ ही स्कूली छात्र छात्राएं चाहे वह अंग्रेजी माध्यम के स्कूल हों या हिंदी माध्यम के स्कूल हों सभी आंदोलन में कूद गये थे। व्यापारी अपनी दुकाने बंद कर आंदोलन में थे सरकारी कर्मचारियों ने अलग यूनियन बनाकर आंदोलन को दिशा दी व कार्य ठप्प रखा। सरकारी विभागों के नामो को पोत कर उत्तराखंड राज्य लिखा गया था सरकारी वाहन छीने जा रहे थे। व बच्चा बच्चा आंदोलन में कूद गया था ऐसे में एक सितंबर को खटीमा में गोली कांड हो गया जिसका पता लगने पर दो सितंबर को मसूरी में खटीमा कांड के विरोध में मौन जुलूस निकालने की रणनीति बनायी गयी। व उसके हिसाब से तैयारी की गई। लेकिन जब पता चला कि उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति के कार्यालय झूलाघर में क्रमिक अनशन पर बैठे बार्लोगंज के आंदोलन कारियों को पीएसी व पुलिस ने रात को उठा लिया व कार्यालय पर कब्जा कर वहां पीएसी बिठा दी गई तो आंदोलनकारी आग बबूला हो गये। एक जुलूस लंढौर से निकला व एक किंक्रेग से किताब घर होते हुए झूलाघर की ओर बढ़ा। पूरे शहर में अजीब सी शांति थी। बाजार बंद थे व झूलाघर को पूरी तरह सील कर पुलिस व पीएसी की छावनी बना दिया गया था। पुलिस पूरी तैयारी के साथ थी आंसू गैस के गोलों सहित पूरा असलाह पास में था। झूलाघर पर उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति के कार्यालय पर कब्जा देख वहां पर भी नारेबाजी की गई लेकिन पुलिस ने उन्हें पकड लिया व आंदोलनकारियों को हिरासत में ले लिया वहीं दोनो जुलूस हावर्ड के समीप एक हो गये व वहां से वापस झूलाघर की ओर आने लगा। प्रदेश में मुलायम सिंह का राज था। जैसे ही जुलूस झूलाघर पर पहुंचा व संघर्ष समिति के कार्यालय की ओर बढ़ा तो पुलिस ने जुलूस को रोकने का प्रयास किया व लाठियां फटकायी इसी बीच गन हिल की ओर से पथराव शुरू हो गया जिससे लोगों को चोट लगने लगी व इसी बीच पुलिस ने गोलियां चला दी। जिसमें मौके पर ही मसूरी के छह आंदोलनकारी हंसा धनाई, बेलमती चौहान, मदनमोहन ममगाई, राय सिंह बंगारी, धनपत, व युवा बलबीर नेगी पुलिस की गोली से शहीद हो गये। और उसके बाद पुलिस ने कफर्यू लगा दिया। अचानक पुलिस की गोलीबारी से लोग सकते में आ गये सीओ पुलिस उपाधीक्षक उमाकांत त्रिपाठी जब तक मामले को समझते व आंदोलन कारियों को शांत करने के लिए हाथ उठा कर समझाने का प्रयास कर रहे थे तभी पुलिस की एक और गोली चली व पुलिस उपाधीक्षक उमाकांत त्रिपाठी भी बुरी तरह घायल हो गये व राजकीय सेंट मेरी अस्पताल में उन्होंने दम तोड़ दिया। और मसूरी के स्वर्णिम इतिहास में एक काला पन्ना जुड़ गया। आज तक लोग समझ नहीं पाये कि गनहिल की ओर से किसने पत्थर फेंके। लेकिन यह सभी मान गये कि यह पूर्व निर्धारित था। व पहले से ही इस तरह का माहौल बनाने का प्रयास किया गया ताकि पुलिस को गोली चलानी पड़े। क्यों कि जिस तरह से रात को अनशन पर बैठे आंदोलनकारियों को उठा कर जेल भेज दिया गया व कार्यालय पर कब्जा किया गया व सुबह से ही पूरे झूलाघर को पुलिस बल से पाट दिया गया था उससे साफ जाहिर था कि यहां गोली चलायी जायेगी। जब गोली चली तो पहले लोगों ने सोचा कि रबर की गोलियां होंगी लेकिन जब एक आंदोलनकारी को लगी तो तब पता चला की यह असली गोलियां हैं। गोली लगने से लोग गिरने लगे तो चारों ओर हा हा कार मच गया लोग चिल्लाने लगे। लेकिन पुलिस की कू्ररता नहीं मानी। पुलिस इतनी पागल हो रखी थी कि नियमों को भी ताक पर रख दिया गया व गोली सीधें सिरों पर मारी गयी। उसके बाद पूरे शहर में कफर्यू लगा दिया गया और लोग घरों में ही कैद होकर रह गये। वहीं पुलिस ने जिन 47 आंदोलन कारियों को जेल भेजा उनको रास्ते भर यातनाएं दी गई। जब वे अपनी आपबीती सुनाते हैं तो रूह कांप उठती हैं ऐसी क्रूरता तो ब्रिटिश काल में भी पुलिस ने कभी दिखाई होगी। इस घटना से पूरे प्रदेश में आंदोलन भड़क गये व केंद्र से कांग्रेस सरकार के जाने के बाद बाजपेई की सरकार आयी व वर्ष 2000 नौ नवंबर को राज्य अस्तित्व में आ गया।

राज्य बने 23 साल हो गये लेकिन जिन सपनों को लेकर यह स्वतःस्फूर्त आंदोलन किया गया था आज राज्य उससे भटक गया। राज्य मात्र नेताओं की मौज मस्ती व अधिकारियों की जेबें भरने तक सीमित रह गया। जिस पलायन को रोकने, अपने बच्चों के भविष्य को संवारने, गांवों में बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं के धरातल पर आने की कल्पना की थी आज वह कोसों दूर हो गई। सपने सपने ही रह गये व विकास के लिए आंखे पथरा गई। हालात बद से बदतर होते चले गये और आज गांव के गांव खाली हो रहे हैं और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है। वर्तमान सरकार ने पलायन रोकने के लिए पलायन आयोग बनाया जिसका मुख्यालय पौड़ी में बनाया गया लेकिन वह आयोग ही खुद पलायन कर गया। ऐसा लगता है कि एक और आंदोलन की जरूरत है। जिसके लिए जनता में धीरे धीरे उबाल आ रहा है।

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