अनोखी व अद्भुत सांस्कृतिक विरासत का द्योतक है मौण मेला संपन्न, बड़ी मात्रा में मछलियां पकड़ी।

टिहरी गढ़वाल : उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत में जौनपुर, जौनसार व रंवाई का विशेष महत्व है, इस क्षेत्र कों पांडवों की भूमि भी कहा जाता है यहां वर्ष भर बार त्योहार होते रहते हैं। वैसे तो पूरे उत्तराखंड में मेले व त्योहार होते रहते हैं हर माह की संक्रांति को पर्व के रूप में मनाया जाता है लेकिन जौनपुर, जौनसार व रंवाई अपनी अनोखी सांस्कृतिक विरासत के लिए भी जाना जाता है। जिसमें मछली मारने का मौण मेला प्रमुख है। जो पूरे देश में अन्यत्र कहीं नहीं होता। व कहा जाता है कि जब यहां राजशाही थी तब टिहरी महाराजा इस में खुद शिरकत करने आते थे। मसूरी के निकटवर्ती अगलाड़ नदी में हजारों की संख्या में मौजूद ग्रामीणों ने पारंपरिक वाद्ययंत्रों की धुन पर मछलियां पकड़ी।
पर्यटन नगरी मसूरी से मात्र बीस किमी दूर अगलाड़ नहीं जो यमुना की सहायक नदी है इस पर मौण मेला आयोजित किया गया। इस बार लालूर क्षेत्र की बारी थी। लालूर पटटी के ग्रामीण बड़ी संख्या में मछलियों को पकडने के उपकरणों को लेकर पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ अगलाड नदी के मौण कोट गये, जहां पर लोकनृत्य के साथ मछलियों को बेहोश करने के लिए टिमरू का पाउडर नदी में डाला गया व इसके डालते ही हजारों की संख्या में मछली पकडने के लिए ग्रामीण नदी में कूद गये। मछलियों को पकडने का यह अदभुत दृश्य नदी में पांच किमी क्षेत्र में देखा गया जिसमें ग्रामीण मछलियों को पकडने के लिए पारंपरिक उपकरण फटियाड़ां, कुडियांडा, मछौनी, जाल आदि लेकर नदी में मछलियां पकडते रहे। इस अनोखे दृश्य को देखने के लिए बड़ी संख्या में स्थानीय नागरिकों के साथ ही पर्यटकों भी मौजूद रहे। जिस व्यक्ति के हाथ मछली लगती उनका उत्साह देखते ही बनता था। इस मौके पर मछली पकडने आये ग्रामीण आनंद सिह सजवाण ने बताया कि यह मेला कई सदियों से मनाया जा रहा है। ग्रामीण खेमचंद ने बताया कि वह कई सालों से मौण मेले में आते हैं, कई बार मछली मिलती है कभी नहीं मिलती लेकिन इस बार खूब मछलियां पकड़ी है। ग्रामीण प्रेम सिंह ने बताया कि उन्होंने कुडियाला से डेढ किलो मछली पकड़ी और हजारों की संख्या में आये लोग खूब मछलियां पकड रहे हैं।


अगलाड नदी में लगने वाले मौण मेले को राज मौण भी कहा जाता है, बताया जाता है कि पहले टिहरी के राजा स्वयं इस मेले में आते थे। लेकिन कई वषों तक मौण मेला आपसी विवाद के कारण बंद रहा लेकिन उसके बाद क्षेत्र की अनोखी संस्कृति के इस मेले व स्थानीय लोगों के जीवन में रचबस गये इस मेले को खुलवाने के लिए क्षेत्र के बड़े बुजुर्गों ने टिहरी महाराज के दरबार में जाकर गुहार लगाई जिसके बाद यह मेला पुनः शुरू हो गया।
इस मेले की अनेक विशेषताएं यह है कि यह अपने आप में अनोखा मेला है वहीं क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत में विशेष महत्व रखता है। इस मेले की खासियत यह है कि हर वर्ष मेले के आयोजन का जिम्मा अलग अलग क्षेत्र के लोगों का होता है जिसे स्थानीय भाषा में पाली कहते हैं। जिस क्षेत्र के लोगों की बारी होती है वहां के लोग एक दो माह पहले ही तैयारी कर लेते हैं। क्यों कि इसमे मछलियों को मारने के लिए प्राकृतिक जड़ीबूटी का प्रयोग किया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में टिमरू कहते हैं। इस पौधे की छाल का निकाला जाता है तथा इसे सुखा कर कूटा जाता है व इसका पाउडर बनाया जाता है जिसे नदी में डाला जाता है जिससे मछलियां बेहोश हो जाती है और लोग इन्हें नदी में जाकर पकड़ते हैं।
नदी में मछली मारने वो लोग भी उतरते हैं जो मांस मछली नहीं खाते लेकिन अपनी परंपरा व संस्कृति से लगाव के चलते वह मछलियां पकड़ते है व घर में खाने वालों को परोसते है। इस मेले को देखने के लिए बड़ी संख्या में अब देशी विदेशी पर्यटक भी आने लगे हैं। वहीं कई शोध करने वाले संगठनों के लोग भी आते हैं। इस मेले की खासियत यह है कि इसमें संस्कृति की झलक मिलती है वहीं लोगों का अपनी संस्कृति से लगाव का इससे बड़ा प्रमाण नहीं मिल सकता। इस मेले में मछलियां पकड़ने वालों के हाथों में पारंपरिक उपकरण होते हैं जिसमें कंडियाला, फटियाड़ा, जाल, खाडी, मछोनी आदि होते हैं।
यह मौण मेला भले ही यहां की सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा है लेकिन इसका वैज्ञानिक महत्व भी है। क्यों कि इस अगलाड़ नदी में वर्ष भर में एक बार ही यह मेला लगता है तथा पूरे साल मछलियों को पनपने का अवसर मिलता है आज के जमाने में भले ही चोरी छिपे लोग मछलियां मारने लगे हैं लेकिन पूर्व में वर्ष भर नदी में मछली नहीं मारते थे। वहीं पर्यावरण की दृष्टि से भी यह मेला महत्वपूर्ण है क्यों कि जब हजारों लोग नदी में एक साथ जाते हैं तो नदी की गाद इनके पैरो से निकल जाती है और बह जाती है जिसके कारण नदी का पानी स्वच्छ हो जाता है व पार दर्शी बन जाता है इससे नदी में आक्सीजन की मात्रा बढ़ जाती है जिससे मछलियों को पनपने में आसानी होती हैं। वहीं जो मछली मारने में टिमरू का पाउडर प्रयोग किया जाता है।
यह मेला अपने आप में अनोखा तो है लेकिन सरकार की ओर से इस मेले को कोई सहयोग नहीं किया जाता। इस मेले की महत्ता इसी बात से लगती है कि जौनपुर के अगलाड़ नदी में लगने वाले मौण मेले में जौनसार, रंवाई, हिमाचल प्रदेश के साथ ही मसूरी से भी देशी विदेशी पर्यटक आते हैं। पहले मौण मेला कई स्थानों पर लगता था जो अब बंद हो गये हैं, कहीं कहीं चोरी छिपे मछलियां मारने के लिए मौण मेला होता है लेकिन अगलाड़ का मौण मेला ही क्षेत्र का प्रमुख मेला है।

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