गणतंत्र दिवस विशेष – सत्ता यंत्र में बदलता वोटतंत्र।

लेख आभार – प्रोफ़ेसर पी.के.आर्य

मसूरी : एक और गणतंत्र दिवस आन पहुँचा; कोई बात नहीं तुम्हारा फिर से रस्मी स्वागत प्यारे गणतंत्र दिवस। गणतंत्र दिवस की आधार धुरी है लोकतंत्र और लोकतंत्र का प्राणतत्त्व है अब वोटयंत्र ! इस गणतंत्र दिवस से लेकर अगले गणतंत्र दिवस के मध्य देश के कईं राज्यों में चुनाव होंगे ;जहां वोटयंत्र के इस्तेमाल से देश के कईं सूबों का आंशिक भविष्य भी लिखा जायेगा। लोकतंत्र की मज़बूती मज़बूत गणतंत्र में है और शक्तिशाली गणतंत्र के पाए समझदार वोटयंत्र के गर्भ में। अब बदलते हुए युग में इस वोटयंत्र के सही इस्तेमाल की भी घड़ी आ गयी है। वोटयंत्र के प्रयोग में की जाने वाली औपचारिकताएँ हमें औपचारिक नेतृत्व ही प्रदान करती हैं। आप अपने वोटयंत्र का प्रयोग अपने निजी स्वार्थ के लिए करना चाहते हैं या आने वाली पीढ़ियों के बेहतर भविष्य के लिए अपना एक अमूल्य योगदान देकर ;यह आप पर निर्भर करता है।
हमारी सरकारों में मौलिकता का अभाव है। उनमें आत्मीयता का अभाव है ! उनमें अभाव है हार्दिकता का भी ? पर क्यों ? सरकार बनती हैं हमारे जैसे कुछ चुने हुए लोगों से ; ये लोग चुने जाते हैं हमारे ही बीच से , स्वभाविक रूप से होते भी हम जैसे ही हैं। अब यहाँ एक प्रश्न यह भी पैदा होता है कि क्या हम अपना स्वयं का भी नेतृत्व करने की क्षमता रखते हैं ? यहाँ से आपके सोचने का काम शुरू होता है। जो गाँव गली का भी नेतृत्व न कर सकते हों, उन्हें आप देश के बड़े -बड़े ओहदों तक पहुँचा देते हो। एक पुरानी परंपरा को याद कीजिये ‘पञ्च’ परंपरा। यह कमोबेश अलग अलग ढंग से आज भी देश के ग्रामीण इलाकों में देखी जा सकती है। पञ्च उन्हें चुना जाता था, जो गाँव के सबसे प्रिय ,आदर्श और प्रेरक व्यक्ति होते थे। प्रायः पंचों को गाँव के लोग नियत करते थे। एक भरोसा होता था उन पर कि उनका मत सर्वोच्च होगा, मतलब कह सकते हैं ईश्वर के बाद किसी भी अड़ी – बड़ी में वे ही भाग्य के नियंता थे। तभी तो उन्हें ‘पञ्च परमेश्वर’ की उपाधि दी गयी थी।
आज बीमार मानसिकता वाले कुछ सनकी समाज सेवा की बैसाखियाँ लगाकर सत्ता की मुँडेर पर चढ़ना चाहते हैं। पैसा ,पद ,पावर और प्रतिष्ठा ने राजनीति में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ा दी है ;जो वहां के कतई योग्य नहीं है। अब ये ही कल के भारत का निर्माण करेंगे। जिन्हें अपने आज का कुछ भी पता नहीं है, वे कल के शिल्प को निकले हैं। नतीजा आपका पूरा देश आपके सामने है। अति सर्वत्र वर्जयते। सभी सब जगह ख़राब हों, ऐसा कभी नहीं हो सकता ;और सभी सब जगह सब अच्छे हों, ये भी दूर की कौड़ी है !
स्मरण रखना बीमार मानसिकता रुग्ण महत्त्वाकांक्षाओं की जननी है। जहाँ रुग्ण महत्त्वाकांक्षाएं होंगी ;वहां अन्याय होगा ,अनीति होगी, असत्य होगा। अब सवाल यह भी उठना लाज़िमी है कि ये महत्त्वाकांक्षाएं पैदा ही क्यों होती हैं ? इसका जवाब है रुग्ण महत्त्वाकांक्षाएं हीनता के बोध से जन्मती हैं। जो व्यक्ति ईश्वर के नैसर्गिक गुणों से शून्य है , अर्थात किसी भी तरह की रचनात्मकता से रिक्त है, उसका रुझान सर्वाधिक राजनीति में होगा। स्वयं के अंतस में दीन-हीन ,रिक्त और शून्य व्यक्ति इस खालीपन को भरने को उतावले रहते हैं। इस अभाव, इस रिक्तता से ही वे भागते हैं। इस पलायन को संतुलित करने के लिए ऐसे व्यक्ति अनेक महत्त्वाकांक्षाओं के लक्ष्य निर्मित करते हैं। ये लक्ष्य उस दौड़ के लिए ऊर्जा के पहिये हैं। मूलतः ये किसी स्थान के लिए नहीं भागते अपितु किसी स्थान से भागते हैं। वे कुछ हो जाना चाहते हैं। वे सबको दिखाना चाहते हैं कि देखो मैं क्या हूँ। वे दूर दिल्ली में जाकर सबके सर पर बैठ जाना चाहते हैं। रिक्त व्यक्तित्त्वों को राजनीति में बड़ा रस रहता है। जो पहले से ही प्रभु के प्रसाद यानि किसी भी तरह की कला से आपूरित हैं उनका रूचि रुझान कभी भी औरों को दबाने, औरों को कुचलने में नहीं हो सकता। तभी तो राज्यसभा में मनोनयन के उपरान्त स्वर कोकिला लता मंगेशकर एक भी बार सदन में नहीं जाती। अमिताभ बच्चन निर्वाचित होते ही त्यागपत्र देने को बैचैन हो उठते हैं। असल में वास्तविक मेधा से आपूरित व्यक्ति किसी भी तरह की स्पर्धा से मुक्त रहता है। वह जहाँ है, वहीँ पूरा है, वहीँ शांत है और वहीँ स्थिर भी !

जो सब छोड़ देता है, वह फिर कुछ भी नहीं पकड़ता। एक व्यक्ति कहता है कि देखो मैं फलां पद पर था, इतना पैसा कमा सकता था, मैंने वह पद छोड़ दिया ! यह मानसिक दाँव है असल में उसने छोड़ा कुछ भी नहीं और अधिक पाने के झरोखे उसे दिखाई पड़ गए और अधिक सरों पर बैठने की जुगत उसे आ गयी; अब वह एक अफसर भर से संतुष्ट नहीं, वह सूबे के सभी अफसरों का ‘सर’ हो जाना चाहता है। वह अब मुख्यमंत्री बनना चाहता है और ऐसे लोग सफल भी रहते हैं; एक अदृश्य मनहूसियत के साथ। जो वास्तव में सब छोड़ते हैं, उन्हें फिर कुछ भी नहीं लुभाता जगत कल्याण और जनता जनार्दन की सेवा ही उनका जीवन होता है।गायत्री परिवार के प्रमुख प्रणव पंड्या तस्तरी में रखकर ले जाई गयी राज्यसभा की सदस्यता को विनम्रतापूर्वक न कह देते हैं ! क्या कहा आपको बुद्ध , महावीर ,राम और वाल्मीकि भी याद आ रहे हैं , फिर यह शुभ लक्षण है आपकी स्मृति जीवंत है।
गाँधी जी का नाम लेकर इस देश में राजनीति करने की पुरानी परंपरा है। बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि राजनीति की मंडी में गाँधी एक ऐसी मुहरबंद मुद्रा हैं, जिसका मूल्य सदा फलता है। लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि उन्होंने अपने जीवन में किसी भी पद को तरजीह नहीं दी। वे इस चक्कर में पड़े ही नहीं। उस समय के सर्वोच्च शिक्षित लोगों में से एक व्यक्ति तमाम उम्र सभी तरह के पदों ,प्रलोभनों और पुरस्कारों से दूर रहा।ऐसे लोगों की फेहरिस्त बहुत लंबी है लेकिन अफ़सोस ये वास्तविक नेता देश के नौजवानों के वास्तविक प्रेरक होने में पिछड़ गए।
राजनीति उन्मुख है रसातल को और शिखर पर आसीन हैं स्वार्थ। अगर वास्तव में आप देश दुनिया का भला करना चाहते हैं तो आपके मूलभूत सिद्धांतों पर कौन असहमत होगा ? और भला क्यों ? मसलन आप आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रगति , शिक्षा और सुख का एक मानचित्र लेकर चल रहे हैं। फिर इस पुण्य के कार्य में किसी को भला क्या आपत्ति हो सकती है।क्या भलाई के भी अलग अलग चेहरे हैं। भलाई मतलब भलाई। बस बात खत्म। मगर बात ऐसे ही खत्म हो जाती तो फिर बात शुरू कैसे होती ? अगर सिद्धांत और मूल्यों के प्रति ही आप समर्पित हैं तब तो किसी भी बड़ी बातपर मतभेद का कोई प्रश्न ही नहीं ! लेकिन विरोधियों की छोड़िये , गैर नीतिकारों की छोड़िये ,अलग मत मतान्तर लेकर राजनीति करने वालों की छोड़िये ; यहाँ तो पिता -पुत्र भी एकमत नहीं। अर्थ साफ़ है बात न मूल्यों की है न ही सिद्धांतों की;… बात है जनता को मुर्ख बनाकर अपने स्वार्थ सिद्ध करने की। वरना अगर गंतव्य समान ही हैं ; तो मार्ग की दुश्वारियों पर क्या मतभेद ?

राजनीति के लिए एक शब्द प्रचलित है। ‘चुनाव लड़ना’। जब संविधान का निर्माण हुआ तब योग्य प्रतिनिधियों की नियुक्ति के लिए एक शब्द अधिक प्रचलन में था। ‘प्रतिस्पर्धा’। यह सकारात्मक शब्द है। पता नहीं कब और कैसे धीरे -धीरे ‘लड़ना’ शब्द स्थापित होता चला गया। अब आप पढ़ते हैं न फलां व्यक्ति अमुक पार्टी से फलां के खिलाफ लड़ रहा है। अब जब लड़ ही रहा है, तो वो सब गंदगी इस लड़ाई में उतरेगी; जो लड़ाई जीतने में सहायक होगी।अब इस देश में एक कहावत तो आपने सुनी ही होगी कि जंग और इश्क में सब जायज़; फिर इतना चिल्लाते क्यों हो ! सब सहो। अब जब प्रतिस्पर्धा है ही नहीं लड़ाई है और लोकतंत्र के लिए वोटयंत्र एक हथियार ही बन गया है, तो अहिंसा और शांति जैसे शब्द बस किताबों की ही शोभा बढ़ाएंगे।इसके लिए सही शब्द प्रतिस्पर्धा ही है;उसका चलन बढ़ना चाहिए। आने वाले चुनाव में यदि इस लोकतंत्र को अक्षुण्ण रखना चाहते हैं तो समझदारी पूर्वक अपने वोटयंत्र का प्रयोग करें।

गणतंत्र दिवस पर तिरंगा फहराते हैं न ! उसमें जो चक्र है वह सम्राट अशोक ने लगभग दो हज़ार दो सौ वर्ष पूर्व प्रयोग किया था। उसमें समय को दर्शाते 24 फलक हैं, जिनसे हमारी घड़ियाँ बनीं और समय का आंकलन शुरू हुआ। मूल प्रतिकृति अशोक स्तम्भ में चक्र के अलावा एक अश्व है गति का द्द्योतक, सिंह हैं शक्ति के प्रतीक और गज है समृद्धि का संकेत। लेकिन सबको आधारभूत संतुलन देता है चक्र। तभी उसे राष्ट्रीय ध्वज के भी केंद्र में सुशोभित किया गया।यह चक्र भी एक वर्तुल पर अवलंबित है ,एक घेरा, एक पहिया, एक चक्का। कुम्हार के चाक जैसा ! जिस पर सब निर्मित होता है और फिर सब मिटटी। अगर कृति अनुकरणीय है ,मनोहारी है ,सुदर्शन है; तो उसे अंतिम रूप देकर आवे में पका दिया जायेगा ;जहाँ वह जीवंत और उपयोगी रहेगी सालों साल, वर्ना फिर से फेंटकर मिटटी में मिला दिया जायेगा। मिटटी फिर से मिटटी, समय और गति का वर्तुल पूर्ण। एक यात्रा पूरी हुई। संकल्प सिद्ध हुआ। राजनीति के चाक पर चढ़े हुए सभी पात्र जो कालखंड पर मूल्यवान नहीं होंगे,समय उन्हें मिला देगा मिटटी में। तभी होगा भारत का भाग्य विधाता के अनुरूप निर्मित और सर्वत्र गूंजेगा।

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